राजद ने लोकसभा में सदन का नेता अभय कुशवाहा को बनाया है, तो भाजपा हारे हुए उम्मीदवार उपेन्द्र कुशवाहा को राज्यसभा भेजने की तैयारी कर रही हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि बिहार की राजनीति में इस वक्त अचानक कुशवाहा वोटर्स इतने महत्वपूर्ण क्यों हो गए है?
लोकसभा चुनाव के संकेत!
महागठबंधन ने कुशवाहा जाति के 7 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. जो दो सीटें इनमें से महागठबंधन के खाते में आई थी, वो दोनों सीटें काफी महत्वपूर्ण थी. काराकाट से भाकपा (माले) के राजा राम सिंह ने उपेन्द्र कुशवाहा को हराया. इस सीट पर उपेन्द्र कुशवाहा तीसरे नंबर पर पहुँच गए थे और औरंगाबाद पर राजद के अभय कुशवाहा ने जीत दर्ज की. यह एनडीए के लिए एक बड़ा सेटबैक था. इस लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेले दम पर 20.52 प्रतिशत वोट मिला था जबकि राजद को अकेले दम पर 22.14 प्रतिशत वोट मिला.
यह स्थिति भाजपा के लिए ऐसी है, जिसकी वजह से वह अपने बूते बिहार की सत्ता पाने से अभी भी काफी दूर है, क्योंकि तकरीबन 30 प्रतिशत वोट बैंक एकमुश्त राजद के पास हमेशा विधानसभा चुनाव में रहता है. दूसरी तरफ, नीतीश कुमार की वजह से लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा) वोट बैंक अब तक पूरे तरीके से भाजपा के साथ नहीं आ सका है.
सम्राट बनाम उपेन्द्र!
अब भाजपा की नजर तकरीबन 7 प्रतिशत कुर्मी-कुशवाहा समेत सहनी वोट बैंक पर भी है. इसका सबूत ये है कि मुजफ्फरपुर से पहली बार चुनाव जीते राजभूषण चौधरी को केंद्र में मंत्री बना कर भाजपा ने मुकेश सहनी को न्यूट्रलाइज करने की कोशिश की है. विधानसभा चुनाव में, ख़ासकर, यादव वोट राजद के साथ मजबूती से खड़ा रहता है, जिसकी बदौलत तेजस्वी यादव अपनी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी तो बना लेते है, लेकिन अकेले बूते सत्ता से पीछे रह जाते है. यही समस्या भाजपा के साथ है.
भाजपा भी सत्ता में साझीदार तो बन जाती है, वह भी एनडीए की सबसे बड़ी पार्टी बनते हुए, लेकिन सत्ता की कमान नीतीश कुमार अपने हाथ से नहीं छोड़ते. भाजपा ने सम्राट चौधरी को युवा नेता बताते हुए भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया, डिप्टी सीएम बनाया लेकिन लोक सभा चुनाव में उन्हें इसका कोई फायदा नहीं मिला, उलटे नीतीश कुमार के साथ हाथ मिला कर भी 9 सीटों का नुकसान हो गया.
दूसरी तरफ कुशवाहा जाति के स्वयंभू नेता उपेन्द्र कुशवाहा की बुरी हार हुई और सर्वाधिक फ़ायदे में रहे नीतीश कुमार. इस भय ने भी भाजपा को मजबूर किया है कि वह उपेन्द्र कुशवाहा को एक बार फिर कुशवाहा जाति का नेता मानते हुए उन्हें उचित सम्मान दे और लव-कुश समीकरण में सेंधमारी कर सकें.
मीसा नहीं, अभय क्यों?
अब राजद को भी समझ आ गया है कि सिर्फ माई से काम नहीं चलने वाला. कुशवाहा जाति (जो तकरीब 5 फीसदी है) को अगर अपना वोट बैंक बनाया जाए तो इनका समीकरण माई (मुस्लिम जोड़ यादव) से विस्तारित हो कर माइक (मुस्लिम, यादव और कुशवाहा) बन जाएगा और माइक से अपनी आवाज दूर-दूर तक फैलाने में मदद मिलेगी. यही वजह है कि महागठबंधन ने सर्वाधिक सीटें कुशवाहा जाति को दिए थे और लोकसभा में भी मीसा भारती के बजाए अभय कुशवाहा को संसदीय नेता बनाकर बिहार के कुशवाहा मतदाताओं को एक सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की.
दूसरी तरफ, एक और उदाहरण है, पूर्वी चंपारण से, जहां भाजपा के वरिष्ठ नेता राधामोहन सिंह, जो अपना दसवां चुनाव लड़ रहे थे. उनके मुकाबले वीआईपी से एक कुशवाहा उम्मीदवार थे, जो पहली बार लोक सभा का चुनाव लड़ रहे थे. ये माना गया कि कुशवाहा बहुल हरसिद्धि विधानसभा क्षेत्र में कुशवाहा मतदाताओं ने वीआईपी उम्मीदवार राजेश कुशवाहा को जबरदस्त वोट दिए. इसका नतीजा ये रहा कि जो राधामोहन सिंह पहले के चुनाव लाखों वोटों से जीतते थे, इस बार वे महज 88 हजार वोट से ही जीत पाए. इन संकेतों को राजद भी समझ रहा है, भाजपा भी.
नीतीश फिर क्या करेंगे?
आमतौर पर, मेरी व्यक्तिगत राय है कि नीतीश कुमार किसी एक जाति के भरोसे अपनी राजनीति नहीं करते और न ही उस वजह से 18 सालों से मुख्यमंत्री बने हुए है. इस लोकसभा चुनाव में उन्हें तकरीबन 18.52 फीसदी वोट मिले है और 12 सीटें मिली है. जिस जाति से वे आते है, उसकी संख्या महज 3 प्रतिशत है. ऐसे में, उनकी सोशल इंजीनियरिंग, आधी आबादी को पूरा हक देने की राजनीति (नौकरी/पंचायत में आरक्षण/नशाबंदी) से उन्हें निश्चित ही राजनीतिक फ़ायदा हुआ है. हां, लव-कुश समीकरण के वे हकदार माने जाते है और अब भाजपा तथा राजद दोनों की नजर कुश पर है.
ऐसे में, नीतीश कुमार की प्रतिक्रया क्या होगी, ख़ास कर भाजपा के सन्दर्भ में, यह देखने लायक होगा. क्या नीतीश कुमार चाहेंगे कि भाजपा उनके लव-कुश समीकरण में सेंधमारी करें? और बिना सेंधमारी किए भाजपा के अश्विनी चौबे जैसे नेताओं का सपना अधूरा ही रह जाएगा कि भाजपा अपने दम पर सरकार बनाएं. तो, केंद्र में नीतीश कुमार के समर्थन की कीमत क्या होगी? क्या नीतीश कुमार भाजपा को इस बात की स्वीकृति देंगे कि वे उनके वोट बैंक में सेंध मारे. आने वाले दिन बिहार की राजनीति के लिए एक बार फिर से महत्वपूर्ण होने जा रहा है.
वैसे भी नीतीश कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा के बीच रिश्ते कोई बहुत अच्छे नहीं माने जाते. हाल ही में सम्राट चौधरी ने अपनी पगड़ी उतार दी है. केंद्र सरकार बनते ही भाजपा के दोनों डिप्टी सीएम ने साफ कर दिया था कि 2025 का चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. इस बीच कुशवाहा वोट की जो राजनीति शुरू हुई है, क्या यह राजनीति एनडीए के रिश्ते पर असर डालेगी? क्या अभय कुशवाहा को सदन का नेता बनाने से राजद अपने “माई” का विस्तार कर के “माइक (MYK)” बना पाएगी? और सबसे महत्वपूर्ण, इस सब पर नीतीश कुमार की प्रतिक्रया क्या होगी? जाहिर है, कुछ तो होगा और जो भी होगा उसका असर बिहार और केंद्र की सरकार पर पड़ना तय है.