लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया पूरी होने के बाद अब राज्य की सियासत में होने वाले बदलाव की चर्चा तेज हो गई है। सबसे बड़ा बदलाव बिहार विधान परिषद में होने वाला है। इसका कारण है कि मौजूदा सभापति देवेश चंद्र ठाकुर के सांसद चुने जाने के बाद सभापति का पद रिक्त हो गया है। सूत्रों की माने तो 17-18 जून तक देवेश चंद्र ठाकुर अपना इस्तीफा दे सकते हैं।
इस स्थिति में नया सभापति या कार्यकारी सभापति का चयन होना तय माना जा रहा है। नए सभापति के रेस में सत्ताधारी बीजेपी के साथ जदयू के नेता के नाम की भी चर्चा तेज है। इसमें सीनियर लीडर रामवचन राय, गुलाम गौस, पूर्व कार्यकारी सभापति अवधेश नारायण सिंह के साथ-साथ नीरज कुमार के नाम शामिल हैं।
हालांकि, इसके चयन का पूरा अधिकार सीएम नीतीश कुमार के पास है। ऑफ द रिकॉर्ड सभी नेता इस बात को स्वीकार करते हैं। ऐसे में विधान परिषद का नया सभापति वही होगा, जिन्हें नीतीश कुमार चाहेंगे। देवेश चंद्र ठाकुर भी नीतीश कुमार के करीबी माने जाते थे।
जदयू के कोटे से ही होंगे नए सभापति
बिहार में गठबंधन की सरकार में परिपाटी रही है कि अगर विधानसभा के अध्यक्ष एक पार्टी के हैं तो विधान परिषद के सभापति दूसरी पार्टी के नेता बनेंगे।
अब उन संभावित नाम को जानिए, जिनकी चर्चा तेज है…
रामवचन राय
80 साल के रामवचन राय जदयू के बौद्धिक चेहरा हैं। पटना यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं। जदयू में शामिल होने के बाद पिछले कुछ सालों तक वे लगातार जदयू के कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग भी देते रहे हैं।
जदयू की तरफ से दूसरी बार उन्हें एमएलसी बनाया गया है। सदन में मार्च 2027 तक उनका कार्यकाल है। जदयू से पहले वे एक बार राजद कोटे से भी एमएलसी रह चुके हैं। इस लिहाज से देखें तो सदन में इनका ये तीसरा टर्म है।
कमजोरी क्या है: रामवचन राय के सभापति बनने में सबसे बड़ी बाधा उनकी उम्र है। पॉलिटिकल एक्सपर्ट कहते हैं कि 80 साल की उम्र में सदन को संतुलित तरीके से चला पाना उनके लिए संभव नहीं हो पाएगा।
गुलाम गौस
विधान परिषद के सभापति की रेस में प्रो. गुलाम गौस का नाम भी शामिल है। पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा हैं। लोकसभा चुनाव में एनडीए की तरफ से एक भी मुस्लिम कैंडिडेट दिल्ली नहीं पहुंचा है। ऐसे में नीतीश कुमार अल्पसंख्यक चेहरे को आगे कर सकते हैं।
इनके पास विधान परिषद का एक लंबा अनुभव है। राजद में रहते हुए विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रह चुके हैं। 2014 में राजद छोड़ जदयू का दामन थामा था। जेपी आंदोलन से ही पॉलिटिक्स में एक्टिव हैं।
कमजोरी क्या है: गुलाम गौस ने लंबे समय तक राजद की राजनीति की है। 2014 चुनाव में राजद की तरफ से लोकसभा का टिकट नहीं मिलने पर जदयू में शामिल हुए थे। फिलहाल, वर्तमान सभापति ब्राह्मण हैं। ऐसे में कास्ट कॉम्बिनेशन के लिहाज से वे फिट नहीं बैठते हैं।
नीरज कुमार
नीरज कुमार जदयू के न केवल सीनियर लीडर हैं, बल्कि पिछले 16 सालों से विधान परिषद के सदस्य हैं। सरकार में मंत्री रह चुके हैं। लगभग तीन दशक से ज्यादा समय से सीएम नीतीश कुमार से जुड़े हुए हैं।
नीतीश कुमार के साथ-साथ जदयू में नंबर-2 और केंद्रीय मंत्री ललन सिंह के काफी करीबी माने जाते हैं। मीडिया में जदयू की आवाज को बुलंदी से रखने के लिए भी जाने जाते हैं। जाति के हिसाब से भी ये फिट बैठते हैं।
नहीं बनाए जाने के क्या हो सकते हैं कारण: नीरज कुमार की गिनती जदयू के सबसे तेज-तर्रार नेता के रूप में होती है। विपक्ष के आरोपों का तर्कसंगत और तथ्यात्मक जवाब देने के लिए जाने जाते हैं। पार्टी के सबसे वोकल लीडर्स हैं। ऐसे में नीतीश कुमार इन्हें हटाने से बचेंगे।
अवधेश नारायण सिंह
अवधेश नारायण सिंह बीजेपी एमएलसी हैं। ये पार्टी के सीनियर लीडर हैं। 1993 से लगातार बिहार विधान परिषद के सदस्य हैं। इनके पास विधान परिषद के संचालन का अनुभव भी है। 2012 से 2017 तक बिहार विधान परिषद के सभापति रहे हैं।
2020 से 2022 तक सदन के कार्यकारी सभापति रहे हैं। नीतीश कुमार के करीबी नेता माने जाते हैं। पिछले दो चुनावों में इनकी जीत में नीतीश कुमार की भी महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है।
कमजोरी क्या है: अवधेश नारायण सिंह भाजपा नेता हैं। विधानसभा अध्यक्ष भाजपा कोटे से हैं। ऐसे में नीतीश कुमार नहीं चाहेंगे कि विधानसभा अध्यक्ष के साथ-साथ विधान परिषद सभापति भी बीजेपी कोटे से हो। इस पद को वे हर हाल में अपने पास रखना चाहेंगे।
मिल सकते हैं कार्यकारी सभापति
जानकारों की माने तो सभापति का चुनाव सदन की कार्यवाही के दौरान ही होता है। फिलहाल, सदन की कार्यवाही स्थगित है। इस स्थिति में स्थायी सभापति के चुनाव में एक-दो महीने की देरी हो सकती है। परिषद में फिलहाल कोई उप सभापति भी नहीं हैं।
इस स्थिति में राज्यपाल की ओर से कार्यकारी सभापति का चयन किया जा सकता है। जानकारों की माने तो राज्यपाल के पास इसका अधिकार होता है। पहले भी बिहार विधान परिषद में कार्यकारी सभापति रह चुके हैं।
संविधान के अनुच्छेद-184 (1) में उल्लेख है कि विधान परिषद में सभापति और उप सभापति के पद रिक्त रहने की स्थिति में कार्यकारी सभापति सदन के संचालन का दायित्व निभाएंगे।
जब 85 साल में 42 दिन तक रिक्त था सभापति का पद
विधान परिषद के इतिहास में एक मौका ऐसा भी आया था, जब 42 दिन तक विधान परिषद के सभापति का पद रिक्त रहा था। 6 मई 2012 को ताराकांत झा के सभापति के पद से हटने के बाद 7 अगस्त तक सभापति का पद रिक्त था। 8 अगस्त 2012 को अवधेश नारायण सिंह नए सभापति बने थे।
वहीं, विधान परिषद में 12 मई 1952 को कार्यकारी सभापति का प्रयोग पहली बार हुआ था। तब से अब तक 25 कार्यकारी सभापति रह चुके हैं।