सुपौल में इस बार लालू प्रसाद यादव ने दो प्रयोग किए हैं। पहला- कांग्रेस की जगह राजद के उम्मीदवार को मैदान में उतारा है। पिछले तीन चुनाव से यहां कांग्रेस की रंजीत रंजन चुनाव लड़ते आ रही थीं। दूसरा- अब तक ओबीसी बहुल इस सीट पर मुकाबला भी इन्हीं के बीच होता था। लालू यादव ने इस बार दलित उम्मीदवार को मौका दिया है।
चंद्रहास चौपाल जो सुपौल की सिंहेश्वर विधानसभा सीट से राजद के विधायक हैं, पार्टी ने उन्हें ही यहां मैदान में उतारा है। जबकि, जदयू ने अपने सीटिंग सांसद दिलेश्वर कामैत पर ही दांव लगाया है। ऐसे में अनारक्षित सीट पर मुकाबला दलित वर्सेज ओबीसी का हो गया है। सुपौल को जानने वाले कहते हैं कि सुपौल वही जीतेगा जो पिछड़ा वोट साधेगा। यहां हर चुनाव में ओबीसी-ईबीसी वोटर्स गेमचेंजर साबित होते हैं।
इसी का फायदा पिछले दो चुनाव से एनडीए को मिल रहा है। इनकी गिनती मुख्य रूप से नीतीश कुमार के कोर वोट बैंक के रूप में होती है। दलित कार्ड का लाभ यहां I.N.D.I.A. गठबंधन को जमीन पर बहुत ज्यादा मिलता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है।
सुपौल में हवा का रुख एनडीए कैंडिडेट की तरफ ज्यादा मालूम पड़ता है, इसके 4 कारण हैं।
जातीय गोलबंदी में जदयू आगे
सुपौल में लालू प्रसाद यादव ने भले दलित कार्ड चला हो, लेकिन इसका उन्हें बहुत ज्यादा फायदा मिलता नहीं दिख रहा है। दलित चिराग को नेता मान रहे हैं या फिर मोदी को। चंद्रहास चौपाल के चेहरे पर कुछ जरूर साथ आ रहे हैं, लेकिन विधायक होने के कारण उनके इलाके में ही उनके खिलाफ एंटी इनकंबेंसी है। दूसरी तरफ लालू के कोर वोट बैंक में भी जदयू यहां सेंधमारी करते हुए दिखाई दे रही है।
पॉलिटिकल एक्सपर्ट कहते हैं कि बिजेंद्र यादव की छवि सुपौल में एक बड़े नेता की है। सुपौल से अभी तक वे अपराजित रहे हैं, जो यादव इस बार लालू यादव के साथ इंटैक्ट हैं। वह बिजेंद्र यादव के कारण बड़ी संख्या में जदयू के साथ हैं। सुपौल में यादव की आबादी लगभग 3 लाख से ज्यादा है।
इसके अलावा, ओबीसी की बात करें तो धानुक और मेहता यहां निर्णायक भूमिका में हैं। इनको नीतीश कुमार का कोर वोट बैंक माना जाता है। दिलेश्वर कामैत भी इसी जाति से आते हैं। इस कारण ये पूरी तरह एनडीए के साथ लामबंद हैं। जबकि, दलित और सवर्ण वोटर्स भी एनडीए के साथ ही मजबूती से खड़े दिखाई दे रहे हैं। इस लिहाज से देखें तो यहां जातीय गोलबंदी में एनडीए बाजी मारती दिखाई दे रही है।
लालू और नीतीश से ज्यादा मोदी की बात
सुपौल की गलियों में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव या सीएम नीतीश कुमार से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चर्चा है। जाति लाइन से ऊपर उठकर लोग पीएम पद के लिए मोदी की बात करते दिख रहे हैं। यहां लोगों के मन में जितनी नाराजगी जदयू के कैंडिडेट दिलेश्वर कामैत से है, उससे ज्यादा पॉजिटिव माहौल नरेंद्र मोदी के नाम को लेकर है। इसका सीधा फायदा एनडीए को मिलता हुआ दिखाई दे रहा है।
वहीं, पेशे से ड्राइवर गणेश शर्मा कहते है- राज्य में किसी की भी सरकार हो उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। केंद्र में मुझे मोदी सरकार चाहिए। एक समय में रोड पर बिल्ली बनकर चलना पड़ता था, अब शेर बनकर चलते हैं।
किसान निधि और खाद्यान्न योजना पड़ रहा है असर
जदयू का प्रत्याशी होने के बाद नीतीश कुमार या बिजेंद्र यादव की जगह मोदी की चर्चा क्यों? ये सवाल जब हमने लोगों से पूछा तो लोगों ने केंद्र की दो योजनाएं गिनाई। लोगों ने कहा- आज उन्हें फ्री में अनाज मिल रहा है, अकाउंट में सीधा पैसा आ रहा है। सुपौल में इस बार चुनाव में इन दोनों योजनाओं का असर साफ तौर पर दिखाई दे रहा है।
प्राथमिक इलाज करने वाले डॉक्टर महेश्वरी सरदार कहते हैं कि इस लोकसभा में हरिजन का वोट तीर छाप में ही जा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है- 5 किलो अनाज। मोदी के कारण सब तीर छाप को वोट दे रहे हैं।
सुपौल में इस बार टफ फाइट है-
लोग कहते हैं कि इस बार सुपौल में मुकाबला टफ है। किसी भी गठबंधन की राह यहां आसान नहीं है। चाहे वो एनडीए हो या इंडिया दोनों के बीच कड़ा मुकाबला है। इस बार नतीजे का अंतर बेहद कम होगा, मुकाबला दिलचस्प होगा।
वहीं, सुपौल के वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि इस बार यहां मुख्य रूप से मोदी फैक्टर काम कर रहा है। राजद सुप्रीमो लालू यादव ने प्रयोग जरूर किया है, लेकिन जिस कैंडिडेट को उन्होंने मैदान में उतारा है, सुपौल जिले में उनकी पहचान बहुत कम है। सिहेंश्वर विधानसभा के वे विधायक हैं वो विधानसभा भले सुपौल लोकसभा क्षेत्र में आता है, लेकिन उनका जिला सहरसा है। निर्दलीय बैद्यनाथ मेहता किसे नुकसान पहुंचा रहे हैं? इस सवाल पर तपेश्वर मिश्र कहते हैं- बैद्यनाथ मेहता दोनों गठबंधन को नुकसान पहुंचाएंगे।